मुखौटे: दिलचस्प इतिहास

पूरा चेहरा या कोई भाग छिपाने के लिए अगर कोई कपड़ा चेहरे पर डाला जाए, तो उसे पर्दा कहते हैं। पर चेहरे के आगे किसी देवी-देवता, जानवर अथवा हंसती, रोती, डरावनी आकृति बना कर चेहरे पर लगाया जाए, तो उसे मुखौटा कहते हैं।
मुखौटे का चलन संसार में प्राचीन काल से चला आ रहा है। आदिवासी लोग जानवरों या देवी-देवताओं, प्रेत अथवा राक्षस का अभिनय करने के लिए मुखौटे बना कर लगाते हैं। उत्तरी और मध्य अफ्रीका में लकड़ी के मुखौटों का भी उपयोग किया जाता है। उत्तरी-पश्चिमी अमेरिका में भी लोग मुखौटों का उपयोग करते हैं।
इराक में एक जाति है – झूठे चेहरे वालों की। ये लोग नाचने-गाने का काम करते हैं। मुखौटे बनाने और लगाने के कारण ही इन्हें झूठे चेहरे वाले कहते हैं। देवताओं का मुखौटा बनाकर पहनने की कल्पना यूनान से आरंभ हुई। यूनान में ‘बारबस‘ देवता की पूजा में मुखौटा का प्रयोग किया जाता था।
यूनान के एक नाटककार अस्कुलस ने ऐसे मुखौटों का निर्माण किया, जिनमें बाल भी होते थे। मुखौटों की आकृति से न केवल उस जीव, देवता या व्यक्ति का एहसास दर्शक को होता है, बल्कि मुखौटों की बनावट द्वारा पीड़ित, दुखी, भद्दा, डरावना या हंसता चेहरा बनाकर किसी के स्वभाव को भी प्रकट किया जा सकता है।
मिस्र में तो मृतक को भी मुखौटा पहनाया जाता है। कभी इसे सोने की पतली परत का बनाया जाता था। यूनान में भी समाधियों के भीतर मुखौटे रखे मिले हैं। ऐसा माना जाता है कि इससे पाताल की देवी ‘परसर‘ खुश होती है।
चीन में मुखौटों का उपयोग नाटक में होता है। जापान में भी नृत्य व ‘नो‘ नाटकों में मुखौटों का उपयोग होता है। चीन के मंदिरों में होने वाले नाटकों में भी इनका उपयोग होता था।
प्राचीन काल से ही ग्रीक नाटकों में भी मुखौटों का चलन था। यहां धातुओं के मुखौटे भी बनाए जाते थे, जिनसे पात्र की आवाज को बढ़ाने का काम लेते थे।
मध्यकाल में प्रायः मुखौटों का उपयोेग नाटकों में चमत्कार पैदा करने के लिए किया जाता था।
नाटकों में व्यक्ति को मृत दिखाने के लिए मोम के मुखौटे बनाकर पहनाए जाते थे। तिब्बत में मुखौटे लगाकर राक्षस नृत्य किया जाता है। इसके पीछे भावना यही होती है कि इससे डरकर दुष्ट आत्माएं भाग जाती हैं।
जावा में मुखौटों को ‘उपेंग‘ कहते हैं। पश्चिमी जर्मनी में कुछ खेलों में भी मुखौटों का प्रयोग करते हैं।
भारत में भी रामलीला, स्वांग व नृत्य-नाटकों में मुखौटों का प्रयोग करते हैं। दक्षिण भारत में ‘कथकली‘ नृत्य में तो मुखौटे का प्रयोग आवश्यक है।
आज भी मुखौटों का कई तरह से प्रयोग किया जाता है। कुट्टी-कागज, कपड़े व घास, मुल्तानी मिट्टी आदि को गलाकर बनाई गई लुगदी से भी मुखौटे बनाए जाते हैं। बच्चे ऐसे मुखौटे प्रायः नाटक व जन्म दिन की पार्टियों में या मेले-त्योहारों पर खूब पहनते हैं।
बादामी पैकिंग के कागज की बड़ी थैली पर मनचाही आकृति को काटकर दूसरे रंगीन कागजों से नाक, कान व कोई विचित्र चेहरा बनाकर भी पहन सकते हैं। आंखों की जगह पर गड्ढे कर दिए जाते हैं।
आजकल सर्कस में जोकर भी तरह-तरह की आकृति के मुखौटे पहनने लगे हैं। मोटे गत्ते पर रंग-बिरंगे तरह-तरह की आकृतियों में छिपे हुए मुखौटे बाजार में बने-बनाए मिलते हैं।
बच्चे भी तरह-तरह के मुखौटे अपनी कल्पना से बना कर पहनें, तो उनका भरपूर मनोरंजन होगा।