पक्षी – बाज | Information on eagle in Hindi
इस चंचल शिकारी पक्षी की शारीरिक बनावट बहुत आकर्षक होती है। सुन्दर, कोमल तथा
चमकदार कत्थई पंखों से इसका शरीर ढंका होता है। अन्दर की ओर मुड़ी हुई नुकीली चोंच का प्रहार
शिकार पर कयामत बरसा देता हैं। बहुत मजबूत और अत्यधिक तीक्ष्ण नुकीले पंजें शिकार में बाज की मदद करते हैं। बाहर की ओर उभरी आंखों से यह बहुत दूर तक देख सकता है।आइये हम आपको बाज के बारे में जानकारी देते है !

विषय सूची
जाबांज बाज
असीरिया, सुमेर, रोम, चीन और यूनान की प्राचीन सभ्यताओं में इस बात के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं कि उस युग में बाजों को प्रशिक्षित कर शिकार के काम में लिया जाता था। ऐसा माना जाता है कि बाज के द्वारा शिकार करने की परम्परा का प्रचलन आज से कोई चार हजार सालों पहले मध्यपूर्व में शुरू हुआ, जो निशाने वाली बन्दूक के आविष्कार के बाद कम जरूर हो गया किन्तु छिटपुट तौर पर अब भी जारी है।
विभिन्न प्रजातियां
बाजों की संसार भर में 58 प्रजातियां पाई जाती है जिन्हें शारीरिक संरचना और नस्ल की दृष्टि से
चार समूहो में विभक्त किया गया है। हार्पोटोथिरेन समूह में लाफिंग फाल्कन और फारेस्ट फाल्कन आदि प्रजातियां आती है। पोलिनोरिने समूह में कराकरा नस्ल के बाज आते है। पोलियोहायराकिने समूह में पिग्गी फाल्कन प्रजाति के बाज तथा फाल्कनीने समूह में बाज की पेरेग्रीन तथा आस्प्रे सहित लगभग 35 नस्ले आती है।
शारीरिक संरचना
इस चंचल शिकारी पक्षी की शारीरिक बनावट बहुत आकर्षक होती है। सुन्दर, कोमल तथा
चमकदार कत्थई पंखों से इसका शरीर ढंका होता है। अन्दर की ओर मुड़ी हुई नुकीली चोंच का प्रहार
शिकार पर कयामत बरसा देता हैं। बहुत मजबूत और अत्यधिक तीक्ष्ण नुकीले पंजें शिकार में बाज की मदद करते हैं। बाहर की ओर उभरी आंखों से यह बहुत दूर तक देख सकता है।
इनके शरीर का आकार इनकी नस्ल पर निर्भर करता है। लगभग ॥7 सेन्टीमीटर लम्बाई वाले मिग्मी हॉक नस्ल के बाज से लेकर 60 सेन्टीमीटर लम्बाई वाले पेरेग्रीन, मर्लिन, कराकर आदि प्रजातियों के बाज संसार के विभिन्न भागों में पाए जाते हैं। बाज एक मनमौजी तथा मस्त स्वभाव का प्राणी होता है।
बाज के घोंसले

घोंसला बनाने की आदतें भी बाजों की विभिन्न प्रजातियों में अलग-अलग पाई जाती हैं। मर्लिन
नस्ल की मादा बाज जमीन पर घोंसला बनाती है। कुछ बाज घने और कांटेदार वृक्ष पर घोंसला बनाते हैं – जबकि जाचक फाल्कन व पेरेग्रीन नस्लों के बाज घोंसला बनाने की जहमत नहीं उठाते और खुले में ही अण्डे देते हैं। आकार में बड़े बाज दो तथा छोटे आकार के बाज तीन से पांच तक अण्डे एक बार में देते है। इनका प्रजनन-काल सामान्यतः मई से जून के मध्य होता है। तकरीबन एक माह तक अण्डे सेने के बाद उनसे नन्हें-नन््हें बच्चे निकल आते हैं, औसतन ढाई माह में उड़ने योग्य हो जाते हैं।
आहार
आहार की दृष्टि से बाज एक मांसाहारी जीव है। इसका मुख्य आहार गौरया, छोटी चिडिया, छोटे
जानवर, कीडे-मकोडे, गिरगिट, गिलहरियां आदि हैं। लाफिंग फाल्कन प्रजाति के बाज का मुख्य आहार सांप है। परिन्दों का रक्तपान करना बाज का खास शौक है। वैसे बाज को सड़ा हुआ तथा मृत पशुओं का मांस खाने से भी कोई परहेज नहीं है।
बाज का इतिहास
बाज को पालतू बनाकर शिकार के लिए प्रशिक्षित किए जाने का इतिहास बहुत पुराना है। इस
शंहशाही शौक के चलते बाज इतिहास के हर काल खण्ड का चश्मदीद गवाह रहा है। ईसा से बारह सौ वर्षों पूर्व विकसित मेसोपोंटामिया की सभ्यता के अवशेष कहते है कि उस जमाने में भी बाज एक पालतू पक्षी हुआ करता था।
यूरोप तक बाज पालने का शौक छठी शताब्दी के पूर्व से शुरू हुआ तथा बाज को ‘प्रशिक्षित कर उसकी मदद से शिकार करना “उस जमाने के रईसों का खास शौक बन गया।

आठवीं शताब्दी में केंट के सम्राट एथेल्बर्ट ने मेयेंस के आकविशप से सारस के शिकार के लिए दो प्रशिक्षित बाज इन्हें पालने व प्रशिक्षित किए जाने में बेतहाशा धन खर्च किया जाता है। तेरहवीं शताब्दी में धर्म युद्ध जीतकर लौटने वाले लोगो ने बाजदारी की परम्परा कों अधिक विकसित स्वरूप प्रदान किया। तेरहवीं से सत्रहवीं शताब्दी तक बाज पाला जाना व उसके माध्यम से शिकार करना यूरोप का एक महत्वपूर्ण मनोरंजन और सामंती शौक बना रहा।
भारत में मुगल सल्तनत के संस्थापक बाबर भी बाज पालने का शौक रखता था। ‘बाबरनामा’ में
बाज के सम्बन्ध में विस्तृत विवरण मिलता है। ‘आईने अकबरी’ में भी बाज के बारे में उल्लेख मिलता है। अकबर अपने प्रिय बाज के साथ शिकार करता था। जहांगीर ने चार हजार बाज पाल रखे थे, जिनके रख-रखाव पर भारी रकम खर्च की जाती थी।
कई मनसबदार जहांगीर द्वारा बाजों की हिफाजत और प्रशिक्षित करने के लिए रख छोडे गये थें। शाहजहां भी अपने प्रशिक्षित बाज से शिकार किया करता था। मुगलकाल में दिल्ली, आगरा और लाहौर के आसपास दुरना, सारस आदि पक्षियों के शिकार पर पाबन्दी थी | इनका शिकार बादशाह या शाही परिवार के सदस्य अपने बाज द्वारा किया करते थे।
सिक्ख गुरूओं की परम्परा में भी बाज उनका एक प्रिय पक्षी रहा है। गुरू हरगोविन्द तथा गुरू
तेंगबहादुर को अपने पालतू बाज से बहुत प्यार था, गुरू गोविन्द्सिंहजी ने तो शक्तिशाली मुगल सल्तनत से युद्ध में अपने खालसा सैनिको के साथ अपने प्रिय बाज को भी अपना विशेष सहायक माना। गुरू गोविन्द्सिंह अपने बाज से बहुत स्नेह रखते थे तथा स्वयं अपने हाथ से उसे भोजन कराते थे।
पंजाब के गांवों में बाज का आना एक शुभ-शकुन माना जाता है तथा उसे गुरू के संदेश-वाहक के रूप में सम्मान दिया जाता है।
शिकार में महारत हासिल है बाज को

शिकारी पक्षी के रूप में बाज को इतनी महारत हासिल है कि वह अपने शिकार पर 280 किलोमीटर प्रति घण्टा की तूफानी रफ्तार से झपट्टा मारता है, शिकार को वह बचने का मौका नहीं देता।शिकार के शौकीन लोग बाज को पालने और प्रशिक्षित करने के लिए शिशु बाज का चयन करते
हैं।
पकड़ने के बाद बाज की आंखो को एक विशेष प्रकार की टोपी से ढंक दिया जाता है और दोनों पांवो में पट्टा डालकर अंधेरी सुनसान जगह छोड दिया जाता है। धीरे-धीरे जब वह आदमी से परिचित हो जाता है तो प्रशिक्षक उसे प्यार से उसकी पसंद का भोजन कराते हैं। बाद में, उसे चमडे के दस्तानें पहना कर हाथ पर बिठा कर इधर-उधर घुमाया जाता है।
एक माह की कड़ी मेहनत के बाद इसे पांव में डोरी बांधकर उड़ाया जाता है तथा मालिक के
इशारे पर वापस आना सिखाया जाता है। जब यह आदेशों का पालन करना भली-भांति सीख जाता है, तब इसे हवा में उड़ रहे परिन्दो का शिकार करना सिखाया जाता है। निरन्तर अभ्यास से यह शिकार में इतना पारंगत हो जाता है कि बड़ी आसानी से कबूतर, मैना, तीतर, बटेर आदि का शिकार कर अपने मालिक के पास ले आता है।
चिड़िया मारने वाली बन्दूक की ईजाद के बाद बाज की उपयोगिता कम हो गई है। अब बाज से
शिकार का यंह मंहगा शौक केवल लीबिया, सऊदी अरब, फारस की खाड़ी के देशों, ईशान आदि तक
सीमित होकर रह गया है। पुराने जमाने में लोग शिकार के लिए गरूड नामक पक्षी का इस्तेमाल करते थे किन्तु उसे प्रशिक्षित करना अत्यन्त कठिन होने के कारण शिकारी पक्षी के तौर पर बाज को ही अधिक अहमियत और लोकप्रियता हासिल हुई।
वीरता का जीवंत प्रतीक

अपने दुस्साहस, तेजीं और शक्ति के कारण मध्य-युग में बाज को शौर्य व वीरता का जीवन्तें प्रतीक माना जाता था। यह एक पालतू पक्षी के रूप में युगों तक राजा-सम्राटों का प्रिय साथी रहा है।
मध्यकालीन वीर गाथाओं में इसकी तुलना आसमान में चमकने वाली दामिनी से की जाती थी, इसकी गति को तीर की संज्ञा दी जाती थी। बहरहाल, बाज ने इतिहास में अपनी भूमिका को बहुत हीं संजीदगी और शौर्य के साथ निभाया है।