आज भी जरूरी है बैलगाड़ी

निःसन्देह बैलगाड़ी बाबा आदम के जमाने से चली आ रही है। आज से पांच हजार बरस पहले मोहन जोदड़ो और हड़प्पा के कांस्य युग में जैसी बैलगाडियां सड़को पर चलती थी, उनसे मिलती जुलती बैलगाड़ियां आज भी सिंध में चलती हैं, समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में जिन बैलगाड़ियों का चलन है, वे मूल रूप से उसी शैली व बनावट की है। लेकिन बैलगाड़ियों की उपयोगिता और प्रासंगिकता को महज इस तर्क के आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता कि वह पुराने युग की वस्तु है। यदि हजारों सालों से बैलगाड़ी परिवहन व माल-वहन के क्षेत्र में चिर स्थायी रूप से निरन्तर चली आ रही हैं तो निश्चय इसकी पृष्ठभूमि में ऐसे तत्व मौजूद होंगे, जिन्होंने इसे आज तक जीवित रखा। अपने सस्तेपन, सरल तकनीक और सुलभ पशु-ऊर्जा से चलित होने के कारण ही बैलगाड़ी आज भारत के ग्रामीण अंचलों में खासी लोकप्रिय है।
अपनी तमाम तकनीकी और वैज्ञानिक सफलताओं के बावजूद भारत ने बैलगाड़ियों के लम्बे काफिले के साथ ही इक्कीसवीं शताब्दी में प्रवेश किया। मोटर-कार, बस, रेल, स्कूटर, मोटर-साईकिल आदि ऊर्जा-चलित साधन हमारी अनुपम औद्योगिक प्रगति का सबूत हो सकते हंै, लेकिन ऊर्जा संकट के इस दौर में लाखों गांवों में परिवहन और मालवहन के दायित्वों को निभाती करोड़ों बैलगाड़ियां भी एक हकीकत है, एक सच्चाई है। कुछ समय बाद जब खनिज तेल के भंडार चुक जाएंगे, तब बैलगाड़ी ही ग्रामीण अंचल की एक मात्र जीवन-रेखा होगी।
भारत का कृषि-प्रधान स्वरूप उसे एक ग्राम्य-छवि प्रधान करता है और बैलगाड़ियां हमारे ग्रामीण जीवन का एक जरूरी हिस्सा हैं। हमारी कुल आबादी का अस्सी फीसदी हिस्सा गांवों में बसता है और बैलगाड़ी के बिना भारत के गांवो की कल्पना कर पाना भी मुश्किल है। यह पशुचालित वाहन अपनी परम्परागत प्राचीनता के कारण हमारे गांवो के आर्थिक तथा सांस्कृतिक मूल्यों का एक जीवन्त प्रतीक बन गया है। यह हमारी सदियो से चली आ रही काष्ठ-कला शिल्प का प्रतिनिधित्व भी करती है।
एक अनुमान के मुताबिक इस समय देश में करीब एक करोड़ पचहŸार लाख से अधिक बैलगाड़ियां है, बैलगाड़ियों में करीब 40 अरब रूपये विनियोजित हैं। जो करीब-करीब सम्पूर्ण रेल-सेवा में लगी पूंजी के बराबर है। इन बैलगाड़ियों में करीब चार करोड़ पशु जोते जाते हैं। आर्थिक-क्षेत्र में बैलगाड़ियों के योगदान के महत्व को इस तथ्य से आंका जा सकता है कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बैलगाड़ियों द्वारा कोई दो करोड़ से अधिक लोगों को रोजगार के अवसर उपलब्ध होते हैं तथा इनसे प्रतिवर्ष करीब बारह अरब रूपयों की आय होती है। इसके मुकाबले ट्रकों द्वारा 75 लाख लोगों को तथा रेल्वे द्वारा 20 लाख लोगों को रोजगार मुहैया होता है। इस प्रकार बैलगाड़ी मालवहन और परिवहन के साथ ही ग्रामीण अर्थ व्यवस्था का एक सुदृढ़ आधार है।
परिवहन की दृष्टि से ग्रामीण अंचलांे में बैलगाड़ी आज भी सबसे सुगम साधन है। धूल और गड्डों से भरी उबड़-खाबड़ सड़कों पर, जहां परिवहन के अन्य साधनों का पहुंचना नामुमकिन है, वहां बैलगाड़ी आसानी से परिवहन सेवाएं उपलब्ध करती है। अनुमानतः एक बैलगाड़ी प्रतिवर्ष औसतन ढाई हजार किलोमीटर की यात्रा करती है। माल वहन में भी बैलगाड़ी की भूमिका को नही नकारा जा सकता, ये देश की कृषि उपज का लगभग 60 प्रतिशत माल बिक्री के लिए मंडियों मे पहुंचाती है और प्रतिवर्ष लगभग एक अरब टन माल ढोती हैं। यह न केवल कृषि जिन्सों को गांवो से बाजार मंडी तक पहुंचाती है बल्कि शहरो में बनने वाले कृर्षि उपकरण तथा ग्रामीण उपभोक्ता सामग्री को गांव में पहुंचाकर गांवों व नगरों के मध्य एक अहम भूमिका भी अदा करती हैं।
परिवहन के आधुनिक साधन हमारे सीमित ऊर्जा भंडारों की अधिकांश ऊर्जा व्यय करते हंै। डीजल, पेट्रोल आदि ऊर्जा-स्त्रोत की खपत निरन्तर बढ़ती जा रही है। उसी अनुपात में निरन्तर उनकी कीमतों में वृद्धि भी हो रही है। माल-वहन हेतु टेªक्टर-ट्रकों का उपयोग निरन्तर बढ़ रहा है। लेकिन बैलगाड़ियों द्वारा माल वहन का कार्य न केवल सस्ता है बल्कि ऊर्जा की बचत में भी महत्वपूर्ण योगदान करता है। पेट्रोल व डीजल चलने वाले वाहन 967 किलोमीटर चलने में इतनी आक्सीजन पी जाते हंै, जितनी एक व्यक्ति के लिए साल भर सांस लेने हेतु पर्याप्त है। बैलगाड़ी प्रदूषण के आरोप से लगभग मुक्त है। इस तरह प्राकृतिक सन्तुलन की दृष्टि से भी बैलगाड़ी की उपयोगिता विवादातीत है।
बैलगाड़ी का रख रखाव तथा संचालन काफी सस्ता एवम् सुविधापूर्ण है। ग्रामीण जीवन-शैली में दो बैल रखना आमतौर पर आवश्यक है, जो किसान के कृषि कार्यो में प्रयुक्त होते है। कृषि कार्यो से निवृत होने के बाद उन्हें बैलगाड़ी में काम लेना एक अतिरिक्त लाभ है। किसी भी प्रकार का मौसम या रास्तों पर बैलगाड़ी आसानी से चल सकती है। चालक के रूप में किसी दक्ष व्यक्ति की भी जरूरत नहीं पड़ती। प्रत्येक आम काश्तकार कुशलतापूर्वक इसका संचालन कर सकता है। ग्रामीण व्यक्तियों के लिए इकठ्ठे किसी समारोह मेले आदि में जाने के लिए भी बैलगाड़ी एक उपयोगी साधन है। इससे मोटर-बसों के ऊंचे किरायों की तो बचत होती ही है, साथ ही अपनी सुविधानुसार कहीं आने-जाने की भी स्वतंत्रता रहती है।
बैलगाड़ी अपनी बहुमुखी उपयोगिता की वजह से ग्रामीण-जीवन शैली का एक निहायत जरूरी हिस्सा बन चुकी है, आधुनिक तकनीक के पक्षधर भी अब इस बात से सहमत है कि भारत में सचमुच बैलगाड़ी का कोई विकल्प नहीं है। हां, यह जरूर है कि इसके वर्तमान स्वरूप में कुछ परिवर्तन और सुधार आवश्यक है। इसकी गति और क्षमता में वृद्धि की जानी आवश्यक है। इसके साथ ही इसमे गति को नियन्त्रित करने के लिए ‘ब्रेक‘ जैसी प्रणाली का होना आवश्यक है।
बैलगाड़ी के वर्तमान स्वरूप में भार का एक तिहाई बैलों की गर्दन को वहन करना पड़ता है, जो बैलों के लिए बहुत त्रासदायक है। बैलों के कंधे व गर्दन पर रखे जाने वाले भारी जुए के वजन में कमी भी जरूरी है, जुए व बोझ के वजन से बैलों की गर्दन पर घाव हो जाते हैं तथा उनकी भार वहन क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अतः आधुनिक तकनीक का उपयोग बैलगाड़ी में आवश्यक सुधार हेतु किया जाना चाहिए।
बैलगाड़ी के स्वरूप में आवश्यक सुधार व परिवर्तन के क्षेत्र में इंडियन इंस्टीट्यूट आॅफ मैनेजमेंट, बैंगलौर के पूर्व निदेशक प्रोफेसर एन0 एस रामस्वामी ने काफी प्रयास किए हैं। उनका कहना है कि ‘भारत ने भले ही अपने उपग्रह अंतरिक्ष में पहंुचाकर बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धि प्राप्त कर ली है, लेकिन हमारी बैलगाड़ी तो अब भी पांच हजार वर्ष पुरानी है। जब तक उसके स्वरूप में आवश्यक सुधार कर उसे और अधिक उपयोगी नहीं बनाया जाता, तब तक हम वैज्ञानिक प्रगति का लाभ आम आदमी तक पहंुचाने का दावा नहीं कर सकते।‘ इस संस्थान द्वारा बैलगाड़ी का एक नया माॅडल भी तैयार किया, जिसका वजन परम्परागत गाड़ी से आधा तथा भार वहन क्षमता 5 टन है। इसके अतिरिक्त कुछ समय पूर्व एल्यूमिनियम कम्पनी लिमिटेड ( इडाल ) द्वारा भी एल्यूमिनियम से निर्मित बैलगाड़ी का एक ऐसा नमूना तैयार किया गया, जो वजन में काफी हल्का होने के साथ मजबूत भी है तथा कीमत के लिहाज से भी सामान्य बैलगाड़ी के लगभग बराबर है।
बैलगाड़ी के पहियों में लगने वाले लोहे के रिम के कारण सड़को को काफी नुकसान पहुंचता है, एक अनुमान के अनुसार इससे प्रतिवर्ष सड़को कों 80 करोड़ से अधिक की क्षति होती है। विकल्प के रूप में पहियों के स्थान पर टायरो का उपयोग भी किया गया। लेकिन अधिक व्यावहारिक नहीं होने कारण यह लोकप्रिय नहीं हो सका। इस दिशा में भी प्रयास जारी हैं। बारंगल के एक क्षेत्रीय इंजिनियरी काॅलेज द्वारा ऐसी बैलगाड़ी का माॅडल तैयार किया जा रहा है, जो सड़कांे को कम प्रभावित करेगी। इसके अतिरिक्त हैदराबाद के इक्रिसैट संस्थान ने बैलगाड़ी के पहियों में परिवर्तन करने की रूपरेखा बनाई है। कई कृषि-यंत्रिकी अनुसंधान केन्द्र बैलगाड़ी के डिजाइन में सुधार हेतु प्रयासरत हैं। भारत सरकार के परिवहन मंत्रालय ने भी बैलगाड़ियों की उन्नत डिजाइन हेतु अनुसंधान योजना बनाई है।
यह तथ्य-सिद्ध सत्य है कि भारत की मौजूदा परिस्थितियों में बैलगाड़ी के समापन की नहीं, बल्कि उसमें सुधार की जरूरत है, लेकिन सुधारों का स्वरूप ऐसा होना चाहिए कि गांव के लुहार और बढ़ई बैलगाड़ी को सुधारने में सक्षम हों। बैलगाड़ी की निर्माण प्रक्रिया को जटिल बनाने वाले सुधार कभी लोकप्रिय नहीं हो सकते। इसके साथ ही यह ध्यान रखना भी आवश्यक है कि ये सुधार लागत में इतनी वृद्धि न कर दें कि आम आदमी इनको अपनाने में कतराने लगें।
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